नई दिल्ली। होली फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनायीं जाती है इसलिए इस त्योहार को फाल्गुनी भी कहा जाता है। हमारे देश के प्राचीन त्योहारों में होली का नाम सबसे ऊपर आता है। इस त्योहार को कई नामों से जैसे होलिका, होलाका, फगुआ और धुलेंडी नामक नामों से भी जाना जाता है। होली के दिन राग और रंग का संगम होता है इसलिए होली के दिन लोग रंग खेलने के साथ नाचते-गाते हैं।
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यह त्योहार कटुता को मिटाने के लिए भी जाना जाता है। जब लोग एक दूसरे को रंग लगाते हैं तो सारे बैर दूर हो जाते है। मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था, जिसकी खुशी में गांव वालों ने होली का त्योहार मनाया था। इसी पूर्णिमा को भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ रासलीला रचाई थी और दूसरे दिन रंग खेलने का उत्सव मनाया। इसी दिन से नववर्ष की शुरुआत हो जाती है।
इसलिए होली पर्व नवसंवत और नववर्ष के आरंभ का प्रतीक है। श्रीमद्भागवत महापुराण में होली के रास का वर्णन किया गया है। महाकवि सूरदास ने बसंत और होली पर 78 पद लिखे हैं। फाल्गुन पूर्णिमा के दिन ऋषि मनु का भी जन्म हुआ था। होली का संबंध भगवान शिव से भी जोड़ा जाता है। होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग भगवान शिव के गणों का वेश धारण करते है।
यह त्योहार भक्त प्रह्लाद की स्मृति में मनाया जाता है। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को आग से न जलने का वरदान था, उसने भगवान श्री हरि विष्णु के भक्त प्रह्लाद को अग्नि में जलाकर मारने की कोशिश की लेकिन होलिका जल गई और प्रह्लाद बच गए, तभी से होली का त्योहार मनाने की प्रथा चली आ रही है। होलिका दहन के समय अधपके अन्न के रूप में गेहूं की बालियों को पकाकर उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है।
यह वैदिक काल का एक विधान था जिसमें यज्ञ में आधे पके हुए अन्न को हवन की अग्नि में पकाकर प्रसाद के रूप में लिया जाता था। इसी विधान को आज भी होलिका दहन में निभाया जाता है। होलिका दहन के बाद होलिका की आग की राख को माथे पर विभूति के तौर पर लगाया जाता है।
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