Guru Mahima : सनातन धर्म में वैदिक काल से ही गुरु शिष्य परंपरा रही है। वैदिक परंपरा के अनुसार, गुरु अपने शिष्यों को जीवन मूल्यों के रहस्यों के बारे में ज्ञान प्रदान करते रहे। गुरु और शिष्य का संबंध अलौकिक संबंध है। पौराणिक ग्रंथों में गुरु शिष्यों के आपसी संबंधों के बारे अनेक कथाएं प्राप्त होती है।
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गुरु के महत्व पर संत तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है-
गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई। जों बिरंचि संकर सम होई।।
अर्थ— भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, गीता, गुरुग्रन्थ साहिब आदि सभी धर्मग्रन्थों एवं सभी महान संतों द्वारा गुरु की महिमा का गुणगान किया गया है। गुरु और भगवान में कोई अन्तर नहीं है।
संत शिरोमणि तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते हैं – –
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि । महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर।।
अर्थ— गुरू मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।
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गुरु का दिशा निर्देशन जरूरी
किसी भी प्रकार की विद्या हो अथवा ज्ञान हो, उसे किसी दक्ष गुरु से ही सीखना चाहिए। जप, तप, यज्ञ, दान आदि में भी गुरु का दिशा निर्देशन जरूरी है कि इनकी विधि क्या है?
गुरुदेव का चरणामृत ही गंगा जल है
सबसे बड़ा तीर्थ तो गुरुदेव ही हैं जिनकी कृपा से फल अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। गुरुदेव का निवास स्थान शिष्य के लिए तीर्थ स्थल है। उनका चरणामृत ही गंगा जल है। वह मोक्ष प्रदान करने वाला है। गुरु से इन सबका फल अनायास ही मिल जाता है। ऐसी गुरु की महिमा है।
तीरथ गए तो एक फल, संत मिले फल चार । सद्गुरु मिले तो अनन्त फल, कहे कबीर विचार ।।
समर्पण भाव
किसी गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता समर्पण की होती है। समर्पण भाव से ही गुरु का प्रसाद शिष्य को मिलता है। शिष्य को अपना सर्वस्व श्री गुरु देव के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए। इसी संदर्भ में यह उल्लेख किया गया है कि यह तन विष की बेलरी, और गुरु अमृत की खान, शीश दियां जो गुरु मिले तो भी सस्ता जान।
प्रायः शिष्य गुरु को मानते हैं पर उनके संदेशों को नहीं मानते। इसी कारण उनके जीवन में और समाज में अशांति बनी रहती है।