नई दिल्ली। अन्नदाता जीत गया और अहंकारी सरकार हार गई। बीते शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने का ऐलान कर दिया है। मोदी सरकार की इस घोषणा को जहां विपक्ष अहंकारी सरकार की हार और किसानों के संघर्ष की जीत करार दे रहा है। तो इससे एक बात साफ हो गई कि प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक रूप से अपना ‘अपराध’ स्वीकार कर लिया है। अब ‘700 किसानों की मौत व उनके दमन’ पर सरकार क्या पश्चाताप करती है? यह बड़ा सवाल है। इसके साथ केंद्रीय गृहराज्य मंत्री अजय मिश्रा टेनी पर क्या एक्शन लेने का साहस जुटा कर पीएम मोदी यूपी की जनता को रामराज्य कल्पना साकार होने का संदेश देंगे।
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बता दें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीनों कृषि कानूनों को आजादी के बाद के सबसे बड़े कृषि सुधारों का दर्जा देते नहीं अघाते थे, उन्हीं कानूनों को वापस लेने के लिए उन्हें मजबूर होना पड़ा। पीएम भले ही इसे देश के लिए लिया गया फैसला बता रहे हों लेकिन हकीकत यही है कि चुनावों में नुकसान के डर से सरकार को झुकना पड़ा। बीजेपी को पश्चिमी यूपी में अपना जनाधार दरकने का डर साफ दिख रहा था। इसके साथ बीजेपी को हरियाणा में मुश्किल से बनाई सियासी जमीन को खोने का डर था। अकाली दल का साथ छूटने के बाद बीजेपी पंजाब में अपने लिए नए सिरे से सियासी जमीन तलाशने की कोशिश में है, लेकिन कृषि कानूनों की वजह से पंजाब में बीजेपी को अपने बचे-खुचे वोट बैंक को सहेजकर रखना तो दूर, उसके नेताओं का क्षेत्र में घूमना-फिरना भी दूभर हो गया था।
सियासी जानकारों की मानें तो भारतीय जनता पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 काफी अहम है। फिलहाल विभिन्न सर्वे में बीजेपी राज्य में बहुमत के आंकड़े के पास पहुंचती तो दिख रही है, लेकिन पश्चिमी यूपी, पूर्वांचल और अवध में उसकी सीटें कम होती दिख रही हैं। जाहिर है पार्टी के लिए ये चिंता की बात है। किसान आंदोलन के नेता राकेश टिकैत राज्य में बीजेपी के खिलाफ वोट की अपील कर चुके हैं। ऐसे में पार्टी कृषि कानून वापस लेकर किसानों में नाराजगी कम करने की कोशिश करती दिख रही है।
कृषि कानूनों की वापसी का यह ‘मास्टर स्ट्रोक’ राजनीतिज्ञ नरेंद्र मोदी की भले ही जीत हो, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हार है जो कथित कृषि सुधारों पर अडिग नहीं रह पाए। सरकार के यू-टर्न के पीछे चुनावी नफा-नुकसान का गणित तो है ही, साथ में यह किसान आंदोलन के जरिए मोदी सरकार पर ‘जिद्दी’, ‘अड़ियल’, ‘तानाशाह’ होने के लगाए जा रहे ठप्पे को नाकाम कर उदारवादी छवि पेश करने की कोशिश है।
कृषि कानूनों की वापसी के निर्णय ने नरेंद्र मोदी सरकार के इस तिलिस्म को तोड़ दिया है कि वह अपना कदम पीछे नहीं खींचते हैं । ऐसा पहली बार नहीं है जब मोदी सरकार अपने किसी अहम फैसले से पीछे हटी है। पहले कार्यकाल में भी मोदी सरकार झुकी चुकी है। तब भी मुद्दा किसानों का ही था। 2014 में सत्ता में आने के कुछ महीने बाद ही मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव के लिए अध्यादेश लाई। जमीन अधिग्रहण के लिए 80 प्रतिशत किसानों की सहमति के प्रावधान को समाप्त कर दिया। विपक्षी दलों और किसानों ने इसका जोरदार विरोध किया। आखिरकार इस पर एक के बाद एक कुल 4 बार अध्यादेश लाने वाली मोदी सरकार को अब तक झुकना पड़ा है। 31 अगस्त 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कानून वापस लेने का ऐलान किया। तब ऐलान के लिए ‘मन की बात’ को चुना गया था अबकी बार ‘राष्ट्र के नाम’ संबोधन जरिया बना।
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कृषि कानूनों की वापसी से निश्चित तौर पर किसान आंदोलन के सबसे बड़े चेहरे राकेश टिकैत का कद बढ़ा है। उनकी तुलना उनके पिता महेंद्र सिंह टिकैत से होने लगी है। मौजूदा किसान आंदोलन की तुलना महेंद्र टिकैत की अगुआई में 1988 में दिल्ली में हुई ऐतिहासिक बोट क्लब किसान पंचायत से होने लगी है जिसने तत्कालीन राजीव गांधी सरकार को झुका दिया था और खुद प्रधानमंत्री को बिजली दरों को घटाने समेत किसानों की 35 सूत्रीय मांगों को मानने का आश्वासन देना पड़ा था।