Navami Puja : लौंग, धार, लपसी, पूड़ी, बेरहीन, रासियाव, दवना मड़ुआ, कराह, कपूर, मिट्टी के पात्र जैसे कि कड़ाही, घड़ा, पतुकी, मेटिया, हांडी। नए गेंहू को अतिपवित्र तरीके से धो कर उनसे तैयार आटा। चैत्र शुक्ल पक्ष की रात में देवकुल के समक्ष केले के पत्ते पर नौ मां स्वरुप के लिए नौ आसन के साथ सात जोड़ी इस पूर्ण आहार का भोग। कोई बाह्य स्वर नही। मां के खटोले के साथ केवल एक स्वर-
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नीमिया के डाढि मईया
लावेली हिंडोलावा
कि झूली झूली ना
मईया के लागलि
पियास हो कि
झूलि झूली ना
यह गीत तो प्रायः सभी ने सुना ही है। लोक गायकों का प्रिय गीत है। लेकिन इस गीत की एक सम्पूर्ण कथा भी है। यह माँ आदि शक्ति और मल्होरिन यानी एक माली की पत्नी के बीच का संवाद है। असुरों से लड़ती लड़ती मां भवानी को जब प्यास लगती है तो वह किसी अन्य से नहीं बल्कि माली के परिवार का द्वार खटखटाती हैं। मालिन से पानी मांगती हैं। मालिन अपनी गोद मे अपने नन्हे बालक को सुला रही है और कहती है कि आपको जल देने के लिए कैसे आऊं। मेरी गोंद में बालक है जो सो रहा है। यह सम्पूर्ण गीत एक अद्भुत संवाद है जिसमे अत्यंत गूढ़ दर्शन है। इसके दर्शन पर फिर कभी बात करेंगें।
शक्ति पूजा
आज चर्चा नवमी पूजा की। अद्भुत पूजा। लोक आस्था में एक सम्पूर्ण साधना के साथ सनातन लोक के प्रत्येक परिवार की शक्ति पूजा । जो लोग गांवों में हैं या रहे हैं उन्हें पता है कि इसी पूजा में रखे जाने वाले कलश के जल से शीतल जल पीने का आरंभ होता है। यह अलग बात है कि आजकल नवमी पूजा को लोग राम नवमी के रूप में ही ज्यादा जान रहे हैं, क्योंकि इस कल्प में इसी तिथि का चयन निर्गुण निराकार श्रीहरि परम ब्रह्म ने श्रीराम के रूप में अपने प्राकट्य के लिए किया है। वस्तुस्थिति यह है कि श्री राम के प्राकट्य से पूर्व भी नवमी पूजा होती रही है। श्रीराम के प्राकट्य ने इस तिथि को श्रीराम नवमी के भी स्वरूप प्रदान कर दिया है। ठीक वैसे ही जैसे शारदीय नवरात्र की दशमी को मां जगदंबा ने महिषासुर का वध किया और सृष्टि को आसुरी शक्तियों से मुक्त किया लेकिन उसी तिथि को श्रीराम ने रावण पर भी विजय पाई जिसको लोक में रावण दहन के रूप में भी मनाया जाने लगा।
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यह लोक विधान स्वयं में सम्पूर्ण विज्ञान है
अब थोड़ी चर्चा इस लोक साधना के प्रसाद अर्पण की यानी प्रसाद में पूड़ी ही क्यों। वस्तुतः पूड़ी शब्द का शुद्ध पूरी है। पूरी अर्थात जो पूर्ण हो। पूरण से बना हो। शक्ति के नैवेद्य में चने की दाल, हींग, नमक और हल्दी की छौंक जरूरी है। इसी छौंक से दालपूरी बनाई जाती है जिसे भोजपुरी लोक बेरहीन कहता है। माता को केले के पत्ते पर इसी बेरहीन और रासियाव यानी मीठे चावल के साथ लौंग का भोग सात जोड़ियों में लगाने की परंपरा है। ये साथ जोड़ियां दिन और रात के सात वार के लिए चढ़ाने का विधान है। यह लोक विधान स्वयं में सम्पूर्ण विज्ञान है। सम्पूर्ण दर्शन है। स्वयं में सम्पूर्ण साधना है। नवमी पूजिये और श्री राम के प्राकट्योत्सव का आनंद लीजिये। मां भवानी और प्रभु श्रीराम सभी की रक्षा करें।
संजय तिवारी
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार,भारत संस्कृति न्यास के संस्थापक और संस्कृति पर्व पत्रिका के संपादक है)