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Tipu sultan Death anniversary: इस एक घटना ने मराठों से छीन ली कट्टर हिंदू रक्षक होने की छवि !

By आराधना शर्मा 
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लखनऊ: टीपू सुल्तान को एक कट्टर मुस्लिम शासक के रुप में देखा जाता हैं लेकिन टीपू की एक शासक के तौर पर अलग ही छवि थी जिसको लेकर आज की भारतीय राजनीति भी कभी कभी गर्मा जाती है। कभी कर्नाटक में काग्रेस टीपू सुल्तान की जयंती पर समारोह आयोजित कर देता हैं तो कभी हमारे राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद टीपू सुल्तान की तारीफ कर देते हैं।

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अब दूसरी तरफ आते हैं। हमारे देश में मराठों की वीरता को कौन नहीं जानता। माना जाता हैं कि इतिहास में सबसे ज्यादा कट्टर हिंदू रक्षक कोई हुआ तो वह मराठा हैं। मराठों ने हिंदू की रक्षा के लिए अपनी प्राणों की आहुति दे दी।

इतिहास में एक ऐसी घटना हुई जिसने टीपू की कट्टर मुस्लिम और मराठों की कट्टर हिंदू रक्षक की छवि को उलट कर रख दिया। 17 वीं सताब्दी के आखरी दशकों में भारत में राजनीतिक हालात बिल्कुल भी ठीक नहीं था। इस समय तक मुगल लगभग अपनी सत्ता खो चुके थे वहीं एक उम्मीद मराठों से थी जो पानीपत की तीसरी लड़ाई में अफगानों से हारने के बाद खत्म हो गई थी।

अंग्रेजों ने हैदराबाद के निजाम और मराठों को अपने पक्ष में करने के बाद सत्ता पर बैठना चाहते थे लेकिन टीपू सुल्तना के होते यह सपना पूरा नहीं होने वाला था। उधर टीपू और मराठों के बीच छत्तीस का आंकड़ा था जिस कारण दोनों का एक होकर देश के लिए लड़ना मुमकिन नहीं था।

टीपू सुल्तना और मराठों के फौज के बीच हुई जंग

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टीपू सुल्तना और मराठों के फौज के बीच जंग शुरु हो गई। टीपू की सेना ने देवनहल्ली के किले पर अपना अधिकार कर लिया था। इससे गुस्साएं मराठों ने मैसूर के बेदनूर पर हमला कर दिया। इस हमलें में मराठों ने बेदनूर में मौजूद श्रृंगेरी मठ को भी काफी नुकसान पहुंचाया।

एक वेबसाइट पर दी गई जानकारी के अनुसार मराठों ने न सिर्फ इसको नुकसान पहुंचाया बल्कि वहां के कई ब्राह्मणों को मारकर मठ की सारी सम्पत्ति लूटकर ले गए। मठ मे लगी देवी शारदा की प्रतीमा भी पूरी तरह से खंडित हो गई थी। मठ के स्वामी जरुर अपनी जान बचाने में कामयाब हो गए।

जंग खत्म होने के बाद मठ के स्वामी में टीपू सुल्तान को मठ के नुकसान का पूरा ब्योरा दिया और मदद की गुजारिश की जिसके तुरंत बाद ही टीपू सुल्तान ने मराठों द्वारा तोड़े गए इस मठ को दोबारा बनवाया। इस घटना ने दोनों की छवि को ही उल्टा कर दिया। कहते हैं भी सत्ता में आने के बाद राजधर्म से बड़ा कोई धर्म नहीं होता। शायद टीपू ने उसी राजधर्म का पालन किया।

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