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Hartalika Teej katha : हरतालिका तीज व्रत कथा, पार्वतीजी के इसी व्रत व तपस्या से डोल गया था शिव जी का सिंहासन

By संतोष सिंह 
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Hartalika Teej vrat katha: भाद्रपद मास की तृतीया को हरतालिका तीज का व्रत मनाया जा रहा है। इस साल हस्त नक्षत्र में हरतालिका तीज है। इस दिन सुबह 06 बजे तक हस्त नक्षत्र रहेगा। भगवान शिव ने वर्णन किया है कि अगर तीज हस्त नक्षत्र में पड़े तो बहुत शुभ मानी जाती है। हरतालिका तीज पर मां पार्वती और भगवान शिव की मिट्टी की मूर्ति बनाकर पूजा की जाती है। इस दिन प्रदोष काल में माता पार्वती और भगवान शिव का पूजन का विधान है, पूजा के बाद कथा पढ़ी जाती है और आरती की जाती है। इसके बाद कथा पढ़ें-

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कथा इस प्रकार है- भगवान शिव की भूमि कैलाश पर्वत पर विशाल वट वृक्ष के नीचे भगवान शिव और पार्वती अपने सभी गणों के साथ विराजमान थे, बलवान वीरभद्र , भृंगी,श्ऱंगी और नंदी अपने-अपने पहरों पर भगवान शिव के दरबार में खड़े थे। इस मौके पर महारानी पार्वती ने भगवान शिव से अपने मन की बात पूछनी चाहिए। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर कहा कि हे महेश्वर, मेरे बड़े सौभाग्य हैं जो मैंने आप जैसा पति पाया, क्या मैं जान सकती हूं कि मैंने वह कौन-सा पुण्य किया है, आप अंतर्यामी हैं, मुझ दासी को बताने की कृपा करें।

महारानी पार्वती की ऐसी प्रार्थना सुनकर भगवान शंकर बोले, तुमने अति उत्तम, पुण्य का संग्रह किया था, जिसकी वजह से तुमन मुझे प्राप्त किया है। वह अति गुप्त व्रत है, लेकिन मैं तुम्हें बताता हूं। वह व्रत भादो मास के शुक्ल पक्ष की तीज के नाम से प्रसिद्ध है। यह व्रत ऐसा है तारों में चंद्रमा, नवग्रहों में सूर्य, वर्णों में ब्राह्मण, देवताओं में गंगा, पुराणों में महाभारत, वेदों में साम, इंद्रियों में मन होता है, इतना श्रेष्ठ है। उन्होंने बताया कि जो तीज हस्त नक्षत्र के दिन पड़े तो वह बहुत पुण्यदायक मानी जाती है। ऐसा सुनकर पार्वती जी की यह सुनने की इच्छा और बी बढ़ गई। वे बोली कि मैंने कब और कैसे तीज व्रत किया था, विस्तार से सुनने की इच्छा है। इतना सुनते ही शंकर जी बोले-भाग्यवान उमा-भारतवर्ष के उत्तर में हिमाचल श्रेष्ठ पर्वत है, उसके राजा हिमाचल हैं, वहीं तुम भाग्यवती रानी मैना से पैदा हुईं थी।

तुमने बाल्यकाल से ही मेरी अराधना शुरू कर दी थी। कुछ उम्र बढ़ने पर तुमने सहेली के साथ जाकर हिमालय की गुफाओं में मुझे पाने के लिए तप किया। तुमने गर्मी में बाहर चट्टानों में आसन लगाकर तप किया, बारिश में बाहर पानी में तप किया, सर्दी में पानी में खड़े होकर मेरे ध्यान में लगी रहीं। तुमने इस दौरान वायु सूंघी, पेड़ों के पत्ते खाएं और तुम्हारा शरीर क्षीण हो गया। ऐसी हालत देखकर महाराज हिमाचल को बहुत चिंता हुई। वे तुम्हारे विवाह के लिए चिंता करने लगे। इसी मौके पर नारद देव आए। राजा ने उनका स्वागत किया और उनके आने का कारण पूछा। तब नारद जी ने कहास राजन मैं भगवान विष्णु की तरफ से आया हूं। मैं चाहता हूं कि आपकी सुंदर कन्या को योग्य वर प्राप्त हो, सो बैकुंठ निवासी भगवान विष्णु ने आपकी कन्या का वरण स्वीकार किया है, क्या आपको स्वीकार है।

 

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राजा हिमांचल ने कहा, महाराज मेरा सौभाग्य है जो कि मेरी कन्या को विष्णु जी ने स्वीकार किया और मैं अवश्य ही उन्हें अपनी कन्या उमा का कन्यादान करूंगा, यह सुनिश्चित हो जाने पर नारद जी बैकुंठ चले गए और भगवान विष्णु से उनके विवाह का पू्र्ण होना सुनाया। यह सुनकर तुम्हें बहुत दुख हुआ, और तुम अपनी सखी के पास पहुंचकर विलाप करने लगी।तुम्हारा विलाप देखकर सखी ने तुम्हारी इच्छा जानकर कहा, देवी मैं तुन्हें ऐसी गुफा में तपस्या के लिए ले चलूंगी जहां महाराज हिमाचल भी न पा सकें। ऐसा कहकर उमा सहेली सहित हिमालय की गहन गुफाओं में विलीन हो गईं। तब महाराज हिमाचल घबरा गए, और पार्वती को ढ़ंढ़े हुए विलाप करने लगे कि मैंने विष्णु जी को जो वचन दिया है, वो कैसे पूरा हो सकेगा। ऐसा कहकर बेहोश हो गए। उस समय तुम अपनी सहेली के साथ ही गहन गुफा में पहुंच बिना अन्न और जल के मेरे व्रत को आरंभ करके, नदी की बालू का लिंग लाकर विविध फूलों से पूजन करने लगीं। उस दिन भाद्र मास की तृतीया शुक्ल पक्ष, हस्त नक्षत्र था। तुम्हारी पूजा के कारण मेरा सिंहासन हिल उठा और मैंने जाकर तुम्हें दर्शन दिए। वहां जाकर मैंने तुमसे कहा -हे देवी मैं तुम्हारे व्रत और पूजन से अति प्रसन्न हूं। तुम मुझसे अपनी इच्छा मांग सकती हो।

इतना सुन तुमने लज्जित भाव से प्रार्थना की कि आप अंतर्यामी है, मेरे मन के भाव आपसे छिपे नहीं है, आपको पति रूप में पाना चाहती हूं, इतना सुनकर मैं तुम्हें एवमस्तु इच्छित पूर्ण वरदान देकर अंतरध्यान हो गया। उसके बाद तुम बालू ते मूर्ति विसर्जित करने नदी पर गईं, जहां नदी तट पर तुम्हारे नगरनिवासी हिमाचल के साथ मिल गए। वे तुमसे मिलकर रोने लगे कि तुम इतने भयंकर वन में जहां सिंह, सांप निवास करते हैं, जहां मनुष्य के प्राण संकट में हो सकते हैं, ऐसे पिता के घर की जाने के निवेदन पर तुमने कहा कि पिताजी आपने मेरा विवाह भगवान विष्णु जी के साथ स्वीकार किया, इस कारण में वन में रहकर अफने प्राण त्याग दूंगी। तब वे बोले, शोक मत करो, मैं तुम्हारा विवाह भगवान विष्णु के साथ कदापि नहीं करूंगा। उन्हीं सदाशिव के साथ करूंगा। इसके बाद महाराज हिमाचल ने रानी मैना सहित खुशहोकर मेरा और तुम्हारा विवाह कराया।-व्रत कथा से संकलित

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