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Independence Day 2021: स्वतंत्रता आंदोलन की याद दिलाती है इन कवियों की कविताएं

By अनूप कुमार 
Updated Date

Independence Day 2021: देश 2021 में स्वतंत्रता दिवस की 75वीं वर्षगांठ (75th anniversary of independence day) मना रहा है। 200 साल की लम्बी लड़ाई के बाद 15 अगस्त 1947 को भारत को ब्रिटिश हुकूमत से पूर्ण रूप से आजादी (Independence) मिली। 15 अगस्त को हर साल स्वतंत्रता दिवस (Independence day) के रूप में मनाया जाता है।आज हम आपको बताने जा रहे है उन कवियों की कविताएं के बारे में जिनकी पंक्तियों को गुनगुना कर आजादी के दीवाने हंसते -हंसते मौत को गले लगा लिया। स्वतंत्रता आंदोलन के महान कवि जिनकी कविताओं ने आजादी के ​दीवनों में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए जोश भर दिया।

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अशफाकउल्ला खां

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख क्रांतिकारी शहीद अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ बचपन से ही पढ़ने में काफी तेज थे।वे कविताएं और नज़्मे भी लिखते थे। प्रस्तुत है अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ की एक देशभक्ति कविता

कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएंगे,
आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे।

हटने के नहीं पीछे, डरकर कभी जुल्मों से,
तुम हाथ उठाओगे, हम पैर बढ़ा देंगे।
बेशस्त्र नहीं हैं हम, बल है हमें चरख़े का,
चरख़े से ज़मीं को हम, ता चर्ख़ गुंजा देंगे।

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परवा नहीं कुछ दम की, ग़म की नहीं, मातम की,
है जान हथेली पर, एक दम में गंवा देंगे।

उफ़ तक भी जुबां से हम हरगिज़ न निकालेंगे,
तलवार उठाओ तुम, हम सर को झुका देंगे।
सीखा है नया हमने लड़ने का यह तरीका,
चलवाओ गन मशीनें, हम सीना अड़ा देंगे।

 

शैलेन्द्र

जिस देश में गंगा बहती है: शैलेन्द्र

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होठों पे सच्चाई रहती है, जहां दिल में सफ़ाई रहती है
हम उस देश के वासी हैं, हम उस देश के वासी हैं
जिस देश में गं गंगा बहती है
मेहमां जो हमारा होता है, वो जान से प्यारा होता है
ज़्यादा की नहीं लालच हमको, थोड़े मे गुज़ारा होता है
बच्चों के लिये जो धरती माँ, सदियों से सभी कुछ सहती है
हम उस देश के वासी हैं, हम उस देश के वासी हैं
जिस देश में गंगा बहती है

कुछ लोग जो ज़्यादा जानते हैं, इन्सान को कम पहचानते हैं
इन्सान को कम पहचानते हैं
ये पूरब है पूरबवाले, हर जान की कीमत जानते हैं
मिल जुल के रहो और प्यार करो, एक चीज़ यही जो रहती है
हम उस देश के वासी हैं, हम उस देश के वासी हैं
जिस देश में गंगा बहती है

 

अज्ञेय( सच्चिदानंद हीरानंद वात्‍स्‍यायन )

नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं
पुते गालों के ऊपर
नकली भवों के नीचे
छाया प्यार के छलावे बिछाती
मुकुर से उठाई हुई
मुस्कान मुस्कुराती
ये आँखें –
नहीं, ये मेरे देश की नहीं हैं…

तनाव से झुर्रियाँ पड़ी कोरों की दरार से
शरारे छोड़ती घृणा से सिकुड़ी पुतलियाँ –
नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं…

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वन डालियों के बीच से
चौंकी अनपहचानी
कभी झाँकती हैं
वे आँखें,
मेरे देश की आँखें,
खेतों के पार
मेड़ की लीक धारे
क्षिति-रेखा को खोजती
सूनी कभी ताकती हैं
वे आँखें…

उसने
झुकी कमर सीधी की
माथे से पसीना पोछा
डलिया हाथ से छोड़ी
और उड़ी धूल के बादल के
बीच में से झलमलाते
जाड़ों की अमावस में से
मैले चाँद-चेहरे सुकचाते
में टँकी थकी पलकें
उठायीं –
और कितने काल-सागरों के पार तैर आयीं
मेरे देश की आँखें…

(पुरी-कोणार्क, 2 जनवरी 1980)

 

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