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संजय तिवारी
सनातन जीवन संस्कृति का एक एक क्षण महत्वपूर्ण है। इसीलिए इस संस्कृति का जीवन दर्शन पूर्ण विज्ञान है। पूरे श्रावण मास में सृष्टि के नियंता भगवान शिव की साधना के बाद पितरों का तर्पण और फिर जीवन संचालन के लिए शक्ति की साधना। यह क्रम बहुत सोच समझ कर हमारे पुरखों ने हमे उपलब्ध कराया है। आज से नवरात्र आरंभ हो रहा है। वर्ष के चार में से एक जिसे शारदीय नवरात्र भी कहा जाता है। इसमे शक्ति की साधना का विधान है। इस शक्ति को समझना जरूरी है। शक्ति के संधान के लिए शिव तत्व और शक्ति तत्व के सम्मिलन का होना आवश्यक है। इस श्रृंखला में अपने शक्तिपीठों के उद्भव और उनकी महत्ता के साथ ही उन कथाओं पर भी चर्चा होगी जिनसे इनकी लोक जीवन मे उपादेयता प्रमाणित होती है।
अनंत से सूक्ष्म तक वही तो है
वह अनादि हैं। अनन्त हैं। भूत हैं। वर्तमान हैं। भविष्य हैं। रागी हैं। अनुरागी हैं। वैरागी हैं। नागरिपु और कामरिपु हैं। शक्ति से समाहित शिव हैं। शक्ति रहित शरीर शव है। ऐसे में शिव और शक्ति को अलग अलग देखना, पाना या अनुभव करना सामान्य रूप से संभव नहीं प्रतीत होता। सनातन वैदिक हिन्दू दर्शन, चिंतन और जीवन संस्कृति शिवशक्ति की इस महत्ता को प्रतिपादित भी करती है और प्रमाणित भी। श्रुति, स्मृति, उपनिषद, पुराण, शास्त्र या इतिहास और साहित्य के सनातन वैदिक चिंतन में विराट से सूक्ष्म और सूक्ष्म से विराट की यात्रा को बहुत सलीके से वर्णित, व्याख्यायित और प्रतिपादित किया गया है।
आदि, अनंत, अविनाशी को समझना, उसकी शक्ति अर्थात ऊर्जा को विविध स्वरूपों में देखना, उसके सम्मिलित स्वरूप को रेखांकित करना और सामान्य रूप से बता देना, इतना आसान भी नही है। इसीलिए पूज्य महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी ने जब परम ब्रह्म यानी भगवान श्रीराम की कथा लिखी तो प्रारंभ में उन्होंने शिव शक्ति सम्मिलन को ही आधार बनाया। श्रीमद रामचरित मानस में वर्णित शिव विवाह की कथा लोक को शिव और शक्ति के सम्मिलन का आधार समझाने के लिए ही है। निर्गुण, निराकार परमब्रह्म जब सगुण साकार मानव रूप में पृथ्वी की सृष्टि में स्वयं को लाते हैं तब तो यह और भी आवश्यक है कि शिव और शक्ति के सम्मिलन की महत्ता को लोक समझे। सृष्टि की इसी संचालन शक्ति चेतना को योग और महाविज्ञान भी स्थापित करते हैं।
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या श्री: स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मी:
पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धि:।
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा
तां त्वां नता: स्म परिपालय देवि विश्वम्।। (श्रीदुर्गासप्तशती)
अर्थात्-‘जो पुण्यात्माओं के घरों में स्वयं ही लक्ष्मीरूप से, पापियों के यहां दरिद्रतारूप से, शुद्ध अंत:करण वाले पुरुषों के हृदयों में बुद्धिरूप से, सत्पुरुषों में श्रद्धारूप से तथा कुलीन मनुष्यों में लज्जारूप से निवास करती हैं, उन आप भगवती को हम लोग नमस्कार करते हैं। देवि! विश्व का पालन कीजिए।’
शक्तिपीठ का अर्थ
शक्तिपीठ, देवीपीठ या सिद्धपीठ से उन स्थानों का ज्ञान होता है, जहां शक्तिरूपा देवी का अधिष्ठान (निवास) है। ऐसा माना जाता है कि ये शक्तिपीठ मनुष्य को समस्त सौभाग्य देने वाले हैं। मनुष्यों के कल्याण के लिए जिस प्रकार भगवान शंकर विभिन्न तीर्थों में पाषाणलिंग रूप में आविर्भूत हुए, उसी प्रकार करुणामयी देवी भी भक्तों पर कृपा करने के लिए विभिन्न तीर्थों में पाषाणरूप से शक्तिपीठों के रूप में विराजमान हैं।