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केंद्र सरकार ने अदालतों के लिए SOP तैयार कर सुप्रीम कोर्ट को भेजा, पॉलिसी मैटर में कोर्ट को दख़ल नहीं देनी चाहिए

By संतोष सिंह 
Updated Date

नई दिल्ली: कोई भी सरकार नहीं चाहती कि अदालतें नीतिगत मामलों में दख़ल दे। जब भी कोई ऐसा मामला अदालतों में आता है सरकारों की यही दलील होती है कि कोर्ट को नीतिगत मामलों में दख़ल नहीं देनी चाहिए। कई बार अदालतें सरकार की दलील मानकर याचिका पर सुनवाई से इंकार कर देती हैं और कई बार नीतिगत मामलों में भी दख़ल दे देती हैं। लेकिन आजाद भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ है जब सरकार ने अपनी तरफ से अदालतों के लिए जो एक स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर तैयार किया है उसमें लिखकर हिदायत दी गयी है कि अगर ऐसा कोई नीतिगत मामला आता है तो अदालतों को खुद सुनवाई करने और उस विभाग के अधिकारी से जवाब मांगने की बजाय मामले को उचित कार्रवाई के लिए सम्बंधित विभाग के पास भेज देना चाहिए।

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सरकार की यह बात अगर अदालतें मान लेती हैं तो आम आदमी के जीवन पर क्या असर होगा, यह समझने के लिए आइये हम याद करते हैं, सदी की सबसे बड़ी विभीषिका कोविड के दौर की। आपको याद होगा कि केंद्र सरकार शुरू शुरू में जो कोविड वैक्सीनेशन पॉलिसी लेकर आई थी। उसमें सरकार ने यह नीति बनायी थी कि 45 वर्ष से ऊपर के लोगों को फ्री टीका लगेगा और उससे कम के लोगों को पैसा चुकाना होगा। यही नहीं सरकारी और प्राइवेट अस्पतालों में वैक्सीनेशन के लिए अलग अलग क़ीमत चुकानी थी। सरकार नहीं चाहती थी कि सुप्रीम कोर्ट इस नीतिगत मामले में दख़ल दे। लेकिन कोर्ट ने दख़ल दिया और इतना दख़ल दिया कि बाद में सरकार को सबके लिए मुफ़्त वैक्सीनेशन की व्यवस्था करनी पड़ी। यह एक उदाहरण भर है, ऐसे बहुत मामले हैं जब अदालतों ने नीतिगत मामलों में जरूरी दख़ल दी और आम आदमी के जीवन में उसका सकारात्मक असर हुआ।

सरकार ने नीतिगत मामलों में दख़ल न देने की जो बात SOP में लिखी है, उसकी वजह है। हाल के दिनों में ऐसे कई मौकै आये हैं, जब सरकार के बार-बार नीतिगत मामला की दलील देने के बाद भी अदालत ने उसमें दखल दिया है। सेम सेक्स मैरिज को मान्यता देने की मांग वाली याचिकाएं जब सुप्रीम कोर्ट आयी थीं, तब सॉलिसिटर जनरल ऑफ इंडिया ने यही बात कही थी कि यह नीतिगत मामला है। लेकिन कोर्ट ने तय किया कि इस मामले पर सुनवाई होगी, और सुनवाई हुई।

केंद्र सरकार के इस SOP में यह भी कहा गया है कि अगर अदालत नीतिगत मामलों में कोई आदेश देती है, तो उसके पालन के लिए सरकार को उचित समय दिया जाना चाहिए। क्योंकि इस तरह के आदेश पर अमल की प्रक्रिया लंबी होती है। इसे कई स्तरों से गुजरना होता है। इसलिए, सरकार की तरफ से समय मांगने हुए किए गए अनुरोध पर विचार होना चाहिए।

अदालतों को कमेटी के सदस्यों का नाम तय नहीं करना चाहिए

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देश में जब भी किसी तरह के भ्रष्टाचार का आरोप लगता है या कहीं कोई दंगा, एनकाउंटर जैसी बात होती है तो हाईकोर्ट या सुप्रीम में याचिकाओं की बाढ़ आ जाती है जिसमें निष्पक्ष जांच के लिए एसआईटी गठन की मांग होती है। कई बार कोर्ट खुद ही ‘स्वतः संज्ञान’ लेकर किसी मामले में जांच का आदेश दे देता है। सरकार ने जो टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर तैयार किया है, उसमें कोर्ट के लिए एक हिदायत यह भी है कि जांच के लिए कमेटी का गठन खुद अदालतों को नहीं करनी चाहिए। सरकार ने लिखा है कि अदालत चाहे तो कमेटी के सदस्यों की संख्या, अध्यक्ष और सदस्यों की योग्यता तय कर सकती है लेकिन सदस्य कौन होंगे यह तय करने का अधिकार सरकार को होना चाहिए।

सरकार की इस हिदायत की पृष्ठभूमि समझने के लिए आप अडानी से जुड़े हिंडनबर्ग रिपोर्ट वाले मामले को याद कीजिए। सरकार चाहती थी कि उस मामले में जांच के लिए बनने वाली एसआईटी के सदस्य वो लोग हों, जिनके नाम का सुझाव सरकार दे रही थी। सरकार की तरफ से सॉलिसिटर जनरल ऑफ इंडिया ने कोर्ट में इस तरफ का प्रस्ताव भी रखा था कि सीलबंद लिफाफे में सरकार सदस्यों के नाम प्रस्तावित करेगी। लेकिन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने साफ मना कर दिया था और सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही कमेटी के सदस्यों का नाम तय किया था। इसीलिए मणिपुर हिंसा मामले में निष्पक्ष जांच के लिए एसआईटी की बात पर सुप्रीम कोर्ट में बहस हो रही थी, सरकार ने ऐसा कोई सुझाव नहीं रखा था।

सरकारी अधिकारी को व्यक्तिगत पेशी के लिए अदालत में बुलाने से बचना चाहिए

स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (SOP) में और भी बातें बताई गई हैं। जैसे नीतिगत मामलों में अगर कोर्ट कोई आदेश देता है, तो उसके पालन के लिए सरकार को उचित समय दिया जाना चाहिए। बहुत ज़रूरी होने पर ही कोर्ट को किसी अधिकारी को व्यक्तिगत रूप से पेश होने को कहना चाहिए। हाल ही में मणिपुर हिंसा मामले में सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने राज्य के डीजीपी को समन कर दिया था। डीजीपी सुबह से शाम तक कोर्ट में बैठे रहे थे।

सरकार के द्वारा तैयार इस SOP के इस व्यवस्था की पृष्ठभूमि इलाहाबाद हाईकोर्ट की एक घटना है। कुछ महीने पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने एक आदेश का पालन न करने के लिए उत्तर प्रदेश के दो वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों को हिरासत में भेज दिया था। हाई कोर्ट ने रिटायर्ड जजों के सेवानिवृत्ति लाभ से जुड़े आदेश का पालन न होने के चलते यह सख्त आदेश दिया था। इसके बाद यह ज़रूरत महसूस की गई कि इस तरह के मामलों के लिए कोई मानक प्रक्रिया होनी चाहिए।

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कई बार यह देखा गया है कि कोर्ट में पेश होने वाले अधिकारियों की वेशभूषा पर जज टिप्पणी करते हैं। सरकार ने कहा है कि सरकारी अधिकारी वकील नहीं होते, जिनके कोर्ट में पेश होने का ड्रेस कोड तय है। अगर सरकारी अधिकारी अपने पद के अनुरूप गरिमापूर्ण पोशाक में कोर्ट आया है, तो उसकी आलोचना नहीं की जानी चाहिए।

पिछले साल पटना हाईकोर्ट वरिष्ठ आईएएस अधिकारी आनंद किशोर और बिहार सरकार में आवास एवं शहरी विकास विभाग के प्रधान सचिव, पटना हाईकोर्ट में पेश हुए थे। आनंद किशोर सफेद शर्ट पहने हुए थे। हाईकोर्ट के जज ने उनको बिना ब्लेजर सफेद शर्ट में देखा तो नाराज हो गए थे। और उनको बहुत खरी खोटी सुना दी थी। सुनवाई का लाइव प्रसारण चल रहा था, इस घटना को सबने देखा था। मुख्य न्यायाधीश ने भी एक कार्यक्रम में इस घटना का जिक्र किया था। सरकार अपने अधिकारियों को इस तरह की अदालती प्रकोप से बचाना चाहती है।

कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र के मामलों में अधिकारियों के खिलाफ़ अवमानना की कार्रवाई नहीं होनी चाहिए

केंद्र सरकार ने सुझाव दिया है कि जो विषय कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में आते हैं, उस पर अगर कोर्ट आदेश देता है तो किसी अधिकारी पर अवमानना की कार्यवाही नहीं की जानी चाहिए। इस तरह के आदेश के पालन में अधिकारी समर्थ नहीं होता। अवमानना की कार्यवाही का इस्तेमाल सिर्फ इसलिए नहीं होना चाहिए कि उसके ज़रिए किसी विशेष आदेश का पालन सुनिश्चित किया जा सके। सरकार ने यह भी कहा है कि अवमानना के मामलों में दंड देने वाले आदेश के अमल पर तब तक रोक लगनी चाहिए, जब तक ऊपर की अदालत अपील नहीं सुन लेती।

चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने इस मामले पर सोमवार, 21 अगस्त को सुनवाई की बात कही है। उन्होंने यह भी कहा है कि मामला पूरे देश से जुड़ा है इसलिए सभी हाई कोर्ट से भी सुझाव लिए जाएंगे। सरकार का ये स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (SOP) एक सुझाव है। इसे मानना, न मानना अदालतों पर निर्भर करेगा। लेकिन इनमें से कुछ बातें ऐसी हैं जिनको मानना अदालतों के लिए और खासकर सुप्रीम कोर्ट के लिए मुश्किल होंगी क्योंकि मी लॉर्ड्स जब ये सब प्रोसीजर मानेंगे तो संविधान का गार्जियन कैसे रह पाएंगे!

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