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अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती पर पढ़े उनके द्वारा लिखीं गई कुछ कवितायें

By प्रिन्स राज 
Updated Date

नई दिल्ली। आज भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी(Atal Bihari vajpai) की जयंती है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की आज जयंती है। आज ही के दिन यानी 25 दिसंबर 1924 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर में उनका जन्म हुआ था। उनके पिता ग्वालियर रियासत में शिक्षक थे। वहीं, शिन्दे की छावनी में 25 दिसंबर 1924 को वाजपेयी का जन्म हुआ था। उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh)के आगरा जिले के मूल निवासी थे। वे हिंदी कवि, पत्रकार और प्रखर वक्ता भी थे। वह जनसंघ के संस्थापकों में से एक थे। वे हिंदी कवि, पत्रकार और प्रखर वक्ता भी थे। वह जनसंघ के संस्थापकों में से एक थे। आज हम आपको रुबरु करायेंगे अटल जी की ऐसी कविताओं से जो आपको भी प्रेरित करने का काम करेगी। कुछ ऐसी कवितायें (Poems) निचे की ओर दी गई है।

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1: कौरव कौन
कौन पांडव,
टेढ़ा सवाल है|
दोनों ओर शकुनि
का फैला
कूटजाल है|
धर्मराज ने छोड़ी नहीं
जुए की लत है|
हर पंचायत में
पांचाली
अपमानित है|
बिना कृष्ण के
आज
महाभारत होना है,
कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है|

2: ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया।
बँट गये शहीद, गीत कट गए,
कलेजे में कटार दड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।

खेतों में बारूदी गंध,
टूट गये नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है।
वसंत से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई।

अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,
ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता।
बात बनाएँ, बिगड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।

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3: चौराहे पर लुटता चीर
प्यादे से पिट गया वजीर
चलूँ आखिरी चाल कि बाजी छोड़ विरक्ति सजाऊँ?
राह कौन सी जाऊँ मैं?

सपना जन्मा और मर गया
मधु ऋतु में ही बाग झर गया
तिनके टूटे हुये बटोरूँ या नवसृष्टि सजाऊँ मैं?
राह कौन सी जाऊँ मैं?

दो दिन मिले उधार में
घाटों के व्यापार में
क्षण-क्षण का हिसाब लूँ या निधि शेष लुटाऊँ मैं?
राह कौन सी जाऊँ मैं ?

4: भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,
जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।
हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,
पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।
पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं।
कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है।
यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,
यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है।
इसका कंकर-कंकर शंकर है,
इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है।
हम जियेंगे तो इसके लिये
मरेंगे तो इसके लिये।

5: एक बरस बीत गया

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झुलासाता जेठ मास
शरद चाँदनी उदास
सिसकी भरते सावन का
अंतर्घट रीत गया
एक बरस बीत गया

सीकचों मे सिमटा जग
किंतु विकल प्राण विहग
धरती से अम्बर तक
गूंज मुक्ति गीत गया
एक बरस बीत गया

पथ निहारते नयन
गिनते दिन पल छिन
लौट कभी आएगा
मन का जो मीत गया
एक बरस बीत गया

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