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Swami Vivekananda Jayanti: स्वामी जी ने सनातन धर्म एवं वेदान्त को आम जनमानस और विदेशों में पहुंचाने का किया अद्वितीय काम

By शिव मौर्या 
Updated Date

Swami Vivekananda Jayanti:  हमारी सनातन संस्कृति हमेशा ऋषि एवं संत परमपरा से अच्छादित रही है। आज खास तौर पर आचार्य नरेन्द्रनाथ स्वामी विवेकानंद जी के विचारों की ओर दिलाना चाहता हूॅ। सभी पंथ/सम्प्रदाय के आचार्यों ने अपने अपने देवेश्वर, देवता, इष्ट के व्याख्या के तथा इससे जुडे तथ्यों मीमांशा की व्याख्या की परन्तु स्वामी विवेकानंद जी ने अपने गुरू रामकृष्ण परमहंस जी के साथ मां आदि शक्ति काली एवं आम जनमानस की राष्ट्रीय शक्ति को पहचाना तथा युवा शक्ति को जोडा व अवाहन किया कि कर्म करो, फल की चिंता मत करो तथा असफल होने पर भी बार-बार, हजार बार प्रयास करों। यही विचार भगवान श्री कृष्ण के कर्म योग के सिद्धांत की आम जनमानस में व्याख्या को आम जनता का, आम जनमानस का प्रेरक बनाते हुये राष्ट्रीय संत बना दिया, जो इनके जन्म दिवस को भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में वषों से मनाया जा रहा है।

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स्वामी विवेकानन्द (जन्म 12 जनवरी 1863, मृत्यु 4 जुलाई 1902) वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। भारत का वेदान्त अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की वक्तृता के कारण ही पहुँचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। उन्हें प्रमुख रूप से उनके भाषण की शुरुआत ”मेरे अमेरिकी भाइयों एवं बहनों” के साथ करने के लिए जाना जाता है। उनके संबोधन के इस प्रथम वाक्य ने सबका दिल जीत लिया था।

स्वामी विवेकानंद का जीवनवृत्त
स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी सन 1863 को कलकत्ता में हुआ था। इनका बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ था। इनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे। उनके पिता पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे अपने पुत्र नरेन्द्र को भी अँग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढर्रे पर चलाना चाहते थे। इनकी माता भुवनेश्वरी देवीजी धार्मिक विचारों की महिला थीं। उनका अधिकांश समय भगवान् शिव की पूजा-अर्चना में व्यतीत होता था। नरेन्द्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी। इस हेतु वे पहले ‘ब्रह्म समाज’ में गये किन्तु वहाँ उनके चित्त को सन्तोष नहीं हुआ। वे वेदान्त और योग को पश्चिम संस्कृति में प्रचलित करने के लिए महत्वपूर्ण योगदान देना चाहते थे। दैवयोग से विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई। घर का भार नरेन्द्र पर आ पड़ा। घर की दशा बहुत खराब थी। अत्यन्त दर्रिद्रता में भी नरेन्द्र बड़े अतिथि-सेवी थे। स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराते, स्वयं बाहर वर्षा में रात भर भीगते-ठिठुरते पड़े रहते और अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते। स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव श्रीरामकृष्ण को समर्पित कर चुके थे। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत की चिंता किये बिना, स्वयं के भोजन की चिंता किये बिना वे गुरु-सेवा में सतत संलग्न रहे। गुरुदेव का शरीर अत्यन्त रुग्ण हो गया था। विवेकानंद बड़े स्वपन्द्रष्टा थे। उन्होंने एक नये समाज की कल्पना की थी, ऐसा समाज जिसमें धर्म या जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद नहीं रहे। उन्होंने वेदांत के सिद्धांतों को इसी रूप में रखा। अध्यात्मवाद बनाम भौतिकवाद के विवाद में पड़े बिना भी यह कहा जा सकता है कि समता के सिद्धांत की जो आधार विवेकानन्द ने दिया, उससे सबल बौद्धिक आधार शायद ही ढूंढा जा सके। विवेकानन्द को युवकों से बड़ी आशाएं थीं। आज के युवकों के लिए ही इस ओजस्वी संन्यासी का यह जीवन-वृत्त लेखक उनके समकालीन समाज एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में उपस्थित करने का प्रयत्न किया है यह भी प्रयास रहा है कि इसमें विवेकानंद के सामाजिक दर्शन एव उनके मानवीय रूप का पूरा प्रकाश पड़े।

लेखक-डा0 मुरली धर सिंह
उप निदेशक सूचना, अयोध्या धाम

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