हिंदू धर्म में प्रत्येक मास की पूर्णिमा का बड़ा ही महत्व है और यह किसी न किसी उत्सव के रूप में मनाई जाती है। उत्सव के इसी क्रम में होली,वसंतोत्सव के रूप में फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन मनाई जाती है। इससे आठ दिन पूर्व होलाष्टक लग जाते हैं। अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक के समय में कोई शुभ कार्य या नया कार्य आरम्भ करना शास्त्रों के अनुसार वर्जित माना गया है।
नई दिल्ली। हिंदू धर्म में प्रत्येक मास की पूर्णिमा का बड़ा ही महत्व है और यह किसी न किसी उत्सव के रूप में मनाई जाती है। उत्सव के इसी क्रम में होली,वसंतोत्सव के रूप में फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन मनाई जाती है। इससे आठ दिन पूर्व होलाष्टक लग जाते हैं। अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक के समय में कोई शुभ कार्य या नया कार्य आरम्भ करना शास्त्रों के अनुसार वर्जित माना गया है।
होलाष्टक के आठ दिनों में नवग्रह भी उग्र रूप में होते हैं, इसलिए इन दिनों में किए गए शुभ कार्यों में अमंगल होने की आशंका रहती है। मुगल साम्राज्य के समय में होली की तैयारियां कई दिन पहले ही प्रारम्भ हो जाती थी। मुगलों के द्वारा होली खेलने के संकेत कई ऐतिहासिक पुस्तकों में मिलते हैं। जिसमें अकबर,हुमायूँ,जहांगीर,शाहजहां और बहादुरशाह जफ़र मुख्य बादशाह थे,जिनके समय में होली खेली जाती थी।
होलिका दहन बुराइयों के अंत एवं अच्छाइयों की विजय के पर्व के रूप में मनाया जाता है। होली यह संदेश लेकर आती है कि जीवन में आनंद,प्रेम,सतोष एवं दिव्यता होनी चाहिए। जब मनुष्य इन सबका अनुभव करता है तो उसके अंतःकरण में उत्सव का भाव पैदा होता है,जिससे जीवन स्वाभाविक रूप से रंगमय हो जाता हैं।रंगों का पर्व यह भी सिखाता है कि काम,क्रोध,मद,मोह एवं लोभ रुपी दोषों को त्यागकर ईश्वर भक्ति में मन लगाना चाहिए।