हम सबके भीतर एक अदृश्य घड़ी चलती है, जो न तो मोबाइल की बैटरी पर चलती है, न किसी ऐप पर। यह है ‘लूनर क्लॉक’, जो हमारे शरीर की कई प्रक्रियाओं को चांद की 29.5 दिन की लय के अनुसार संचालित करती है, लेकिन मॉडर्न टाइम में जिसमें शहर की लाइट और स्क्रीन ने रात को दिन बना दिया है।
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क्या है यह ‘लूनर क्लॉक’?
जैसे हमारी सर्केडियन रिदम (Circadian Rhythm) पृथ्वी के 24 घंटे के दिन-रात के चक्र से जुड़ी होती है, वैसे ही लूनर क्लॉक चांद के चक्र से जुड़ी है। कई जीव-जंतु, समुद्री प्रजातियां और यहां तक कि मनुष्य भी लंबे समय तक इसी लय पर चलते आए हैं। यह हमारी नींद, प्रजनन, और ऊर्जा के स्तर तक को प्रभावित करती है।
रोशनी बढ़ने से टूटा तालमेल
आर्टिफिशियल लाइट के युग ने इस प्राकृतिक तालमेल को बिगाड़ दिया है। एक रिसर्च में पाया गया कि जैसे-जैसे दुनिया में रात का अंधेरा घटता जा रहा है, वैसे-वैसे हमारे जैविक संकेतक भी कमजोर हो रहे हैं। पहले जहां चांद का बढ़ना-घटना हमारे शरीर की प्रक्रियाओं को दिशा देता था, अब वह प्रभाव शहरी चमक में खो गया है।
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चांद और नींद का गहरा रिश्ता
2021 में अर्जेंटीना के टोबा समुदाय पर किए गए एक अध्ययन ने दिखाया कि पूर्णिमा से तीन से पांच दिन पहले लोग देर से सोते हैं और कम नींद लेते हैं। यही प्रभाव सिएटल जैसे बड़े शहरों में भी देखा गया, हालांकि कमजोर रूप में। इसका मतलब साफ है: बिजली की रोशनी चांद के प्रभाव को दबा सकती है, मिटा नहीं सकती।
चांद का असर सिर्फ रोशनी से नहीं, गुरुत्वाकर्षण से भी
वैज्ञानिकों का मानना है कि हमारी नींद का पैटर्न सिर्फ चांदनी की रोशनी से नहीं, बल्कि चांद के गुरुत्वीय खिंचाव से भी प्रभावित होता है। हर महीने दो बार जब यह खिंचाव सबसे अधिक होता है। पूर्णिमा और अमावस्या के समय तो शरीर की जैविक घड़ी हल्का-सा बदलाव महसूस करती है।
नींद में बदलाव के वैज्ञानिक प्रमाण
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2013 में किए गए एक प्रयोग में पाया गया कि पूर्णिमा के दौरान प्रतिभागियों को सोने में लगभग पांच मिनट अधिक समय लगा, वे करीब बीस मिनट कम सोए और उनके शरीर में नींद नियंत्रित करने वाला हार्मोन मेलाटोनिन कम उत्पन्न हुआ। यही नहीं, उनके दिमाग की गहरी नींद वाली तरंगें (EEG slow-wave activity) भी लगभग 30% कम थीं।