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फिल्ममेकर वी.शांताराम की बायोपिक में अभिनेता सिद्धांत चतुर्वेदी निभा रहे उनका रोल, निर्माता को मिल चुका है दादा साहब फालके अवॉर्ड

एक्टर सिद्धांत चतुर्वेदी मशहूर फिल्ममेकर वी.शांताराम की बायोपिक में उनका रोल करते हुए नजर आने वाले है। मेकर्स ने वी.शांताराम के रूप में सिद्धांत का लुक दिखाया। कैमरा टेक फिल्म्स ने वी.शांताराम के रूप में सिद्धांत के लुक का पोस्टर शेयर किया और लिखा इंडियन सिनेमा को नया रूप देने वाले बागी, ​​बड़े पर्दे पर वापस आ गए हैं, जहां उन्हें होना चाहिए था। पोस्टर में सिद्धांत को सफेद धोती-कुर्ता और भूरे रंग का ब्लेज़र पहने हुए है।

By Satish Singh 
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मुंबई। एक्टर सिद्धांत चतुर्वेदी (Actor Siddhant Chaturvedi) मशहूर फिल्ममेकर वी.शांताराम (Famous filmmaker V. Shantaram) की बायोपिक में उनका रोल करते हुए नजर आने वाले है। मेकर्स ने वी.शांताराम (V. Shantaram) के रूप में सिद्धांत का लुक दिखाया। कैमरा टेक फिल्म्स ने वी.शांताराम (V. Shantaram) के रूप में सिद्धांत के लुक का पोस्टर शेयर किया और लिखा इंडियन सिनेमा को नया रूप देने वाले बागी, ​​बड़े पर्दे पर वापस आ गए हैं, जहां उन्हें होना चाहिए था। पोस्टर में सिद्धांत को सफेद धोती-कुर्ता और भूरे रंग का ब्लेज़र पहने हुए है। साथ ही कैमरे के साथ कॉन्फिडेंस से खड़े दिख रहे है। अनाउंसमेंट पोस्टर में चतुर्वेदी को वी.शांताराम (V. Shantaram) के टाइटल रोल में दिखाया गया है, जिन्हें लंबे समय से इंडियन सिनेमा के दूरदर्शी के रूप में जाना जाता है।

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वैराइटी के अनुसार यह फिल्म शांताराम के साइलेंट एरा से लेकर साउंड और कलर के आने तक के शानदार सफर को दिखाती है, जो भारत के सबसे प्रभावशाली फिल्ममेकर्स में से एक के रूप में उनके विकास को दिखाती है। वी. शांताराम (V. Shantaram) जिनका जन्म 1901 में शांताराम राजाराम वांकुद्रे (Shantaram Rajaram Vankudre) के तौर पर हुआ था। भारतीय सिनेमा (indian cinema) में एक नई पहचान बनाने वाले थे, जिनका करियर लगभग सात दशकों तक चला। उन्होंने दो बड़े फिल्म स्टूडियो शुरू किए 1929 में प्रभात फिल्म कंपनी और 1942 में राजकमल कलामंदिर (Prabhat Film Company and Rajkamal Kalamandir in 1942) और 1932 में पहली मराठी भाषा की टॉकी, अयोध्या राजा (ayodhya king) डायरेक्ट की। वैरायटी के अनुसार, उनकी फिल्में, जिनमें दुनिया ना माने (1937), दो आंखें बारह हाथ (1957), झनक झनक पायल बाजे (1955) और नवरंग (1959) जैसी क्लासिक फिल्में शामिल हैं। अपने टेक्निकल इनोवेशन और सांप्रदायिक सद्भाव, दहेज और कैदियों के पुनर्वास जैसे मुद्दों पर प्रोग्रेसिव सोशल थीम के लिए मशहूर थीं। अपने शानदार सेट, यूनिक गानों की पिक्चराइज़ेशन और विज़ुअल सिंबॉलिज़्म के सिग्नेचर स्टाइल के लिए जाने जाते है। उन्होंने अपने पूरे करियर में सिनेमा को सामाजिक बदलाव के एक ज़रिया के तौर पर इस्तेमाल किया। उन्हें 1985 में भारत का सबसे बड़ा फ़िल्म सम्मान दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड (Dadasaheb Phalke Award) मिला था।

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