अमरोहा के जूनियर हाईस्कूल में प्रधानाध्यापक संजीव कुमार द्वारा आत्महत्या की खबर ने पूरे शिक्षा जगत को हिला कर रख दिया है। यह घटना केवल एक व्यक्ति की व्यक्तिगत त्रासदी नहीं है, बल्कि हमारे देश के शिक्षकों पर बढ़ते मानसिक दबाव और तनाव की गंभीर स्थिति को उजागर करती है।
“कुछ ऐसे भी दबाव होते हैं ज़िन्दगी में, जो हर कदम पर हमें झुकाए रखते हैं।
हम मुस्कुरा तो लेते हैं भीड़ के सामने, पर भीतर घाव छुपाए रखते हैं।”
अमरोहा के जूनियर हाईस्कूल में प्रधानाध्यापक संजीव कुमार द्वारा आत्महत्या की खबर ने पूरे शिक्षा जगत को हिला कर रख दिया है। यह घटना केवल एक व्यक्ति की व्यक्तिगत त्रासदी नहीं है, बल्कि हमारे देश के शिक्षकों पर बढ़ते मानसिक दबाव और तनाव की गंभीर स्थिति को उजागर करती है। संजीव कुमार ने अपने 18 पन्नों के सुसाइड नोट में जो बातें लिखी हैं, वे शिक्षा व्यवस्था की उदासीनता और शिक्षकों के प्रति अधिकारियों और सहकर्मियों के असंवेदनशील रवैये को स्पष्ट रूप से दर्शाती हैं।
यह कोई पहली घटना नहीं है जब किसी शिक्षक ने काम के तनाव और सहकर्मियों के असहयोग से टूटकर आत्महत्या का रास्ता चुना हो। लेकिन यह सवाल बार-बार उठता है कि आखिर क्यों हमारे समाज और प्रशासन में शिक्षकों के मानसिक स्वास्थ्य और उनकी भावनात्मक स्थिति की अनदेखी हो रही है?
अध्यापक संजीव कुमार ने अपने सुसाइड नोट में जिस प्रकार से कर्तव्यों की चिंता व्यक्त की, वह शिक्षकों पर बढ़ते मानसिक तनाव का जीवंत प्रमाण है। उन्होंने विभागीय टेबलेट के रख-रखाव और इंचार्ज की जिम्मेदारी जैसे विषयों पर भी आत्महत्या से ठीक पहले विचार किया। यह दिखाता है कि किस प्रकार शिक्षकों पर न सिर्फ शिक्षण का भार है, बल्कि प्रशासनिक जिम्मेदारियों का बोझ भी उन पर डाल दिया जाता है। वे जिम्मेदारियों के इस जाल में इतने उलझ जाते हैं कि उनके लिए मानसिक शांति और संतुलन बनाए रखना लगभग असंभव हो जाता है।
शिक्षक, जो बच्चों के भविष्य को संवारने का काम करते हैं, वे खुद इस हद तक तनावग्रस्त हो चुके हैं कि उन्हें आत्महत्या जैसा कदम उठाना पड़ रहा है। संजीव कुमार की आत्महत्या के पीछे का कारण केवल उनके व्यक्तिगत जीवन की समस्याएं नहीं थीं, बल्कि यह विभागीय दबाव, काम का अत्यधिक बोझ, और सहकर्मियों का असहयोग था। जब एक शिक्षक से स्कूल के सारे प्रशासनिक काम, पढ़ाई, और बच्चों की देखभाल की अपेक्षा की जाती है, तो वह कब तक यह बोझ अकेले उठाएगा? कब तक वह अपने साथियों से सहयोग की आस लगाएगा, जो खुद भी उसी तनाव से जूझ रहे होते हैं?
मानसिक स्वास्थ्य: अनदेखा मुद्दा
शिक्षकों के मानसिक स्वास्थ्य की समस्या आज इतनी गंभीर हो चुकी है कि इसे नज़रअंदाज करना संभव नहीं है। प्रशासनिक कामों का बोझ, विभागीय आदेशों की लगातार भरमार, और सामाजिक अपेक्षाओं का दबाव शिक्षकों को मानसिक और शारीरिक रूप से थका रहा है। ऐसे में जब कोई शिक्षक मदद की गुहार लगाता है, तो उसे या तो नजरअंदाज कर दिया जाता है, या फिर उसे ही दोषी ठहरा दिया जाता है।
शिक्षा विभाग और प्रशासन की ओर से जब कोई मंच या सहयोग का तंत्र नहीं होता, तो शिक्षक कहां जाए? उन्हें अपने मानसिक स्वास्थ्य को लेकर किससे बात करनी चाहिए? उनकी समस्याओं को समझने वाला कोई नहीं है, और अगर वे अपनी समस्याएं साझा करते भी हैं, तो जवाब मिलता है, “हम सब भी इसी स्थिति में हैं!”
सहकर्मी और प्रशासनिक असहयोग
संजीव कुमार की आत्महत्या के पीछे उनके दो सहकर्मियों और बेसिक शिक्षा अधिकारी को जिम्मेदार ठहराया गया है। यह घटना यह बताती है कि आज के समय में शिक्षकों के बीच का आपसी संबंध किस प्रकार बदल गया है। पहले जहां शिक्षक आपस में मिलकर समस्याओं का समाधान करते थे, आज वही शिक्षक एक-दूसरे के लिए तनाव का कारण बन रहे हैं। यह केवल सहकर्मियों के बीच संवाद की कमी नहीं है, बल्कि यह प्रतिस्पर्धा और कार्यभार के कारण उत्पन्न होने वाला तनाव है, जो शिक्षकों को एक-दूसरे से दूर कर रहा है।
संजीव कुमार के मामले में यह भी देखा गया कि कैसे विद्यालय में कीचड़ भरे मैदान की सफाई के लिए उन्होंने खुद बच्चों के साथ मिलकर काम किया। लेकिन इसके बाद उन्हें बाल अधिकारों की संस्था द्वारा शिकायत का सामना करना पड़ा और अधिकारियों ने उन पर कार्रवाई का नोटिस थमा दिया। यह प्रशासनिक रवैया केवल काम को और कठिन बना रहा है। शिक्षक, जो बच्चों के भविष्य के लिए खुद को समर्पित कर रहे हैं, वे लगातार दबाव में जी रहे हैं।
शिक्षकों के लिए समय और मानसिक शांति जरूरी
शिक्षक तभी अपने छात्रों को सर्वश्रेष्ठ दे सकते हैं, जब उन्हें खुद भी समय, सम्मान और मानसिक शांति मिले। शिक्षकों के मानसिक स्वास्थ्य और काम के संतुलन की ओर ध्यान देना आज की आवश्यकता है। अगर हम शिक्षकों को उनके काम का बोझ कम करने और उन्हें मानसिक रूप से स्वस्थ रखने के उपाय नहीं अपनाएंगे, तो ऐसी दुखद घटनाएं होती रहेंगी।
शिक्षकों के लिए प्रशासनिक कामों से मुक्ति, पांच दिन का कार्य सप्ताह, और मानसिक स्वास्थ्य समर्थन जैसे उपाय अब समय की मांग हैं। हमें यह समझना होगा कि शिक्षक केवल एक पेशेवर नहीं हैं, वे हमारे समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अगर वे मानसिक रूप से स्वस्थ और संतुलित रहेंगे, तभी वे छात्रों को बेहतर शिक्षा दे सकेंगे।
संजीव कुमार की आत्महत्या एक गंभीर चेतावनी है, जिसे हमें अनदेखा नहीं करना चाहिए। यह समय है कि हम शिक्षकों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझें और उनके काम के बोझ को कम करने के साथ-साथ उनके मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल करें। तभी हम एक स्वस्थ और समर्थ शिक्षा प्रणाली का निर्माण कर सकेंगे।
“जहां खुद के लिए वक्त ना हो मयस्सर,
वहां दूसरों को रास्ता कौन दिखाएगा?”
✍️ प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर