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Baba Saheb Ambedkar Jayanti Special 14th April : ‘मूक’ समाज को आवाज देकर बन गए उनके ‘नायक’ -प्रो.(डा.) संजय द्विवेदी

“अगर कोई इंसान, हिंदुस्तान के कुदरत तत्वों और मानव समाज को एक दर्शक के नजरिए से फ़िल्म की तरह देखता है, तो ये मुल्क नाइंसाफ़ी की पनाहगाह के सिवा कुछ नहीं दिखेगा।”  बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने आज से 103 वर्ष पूर्व 31 जनवरी 1920 को अपने अख़बार 'मूकनायक' के पहले संस्करण के लिए जो लेख लिखा था, यह उसका पहला वाक्य है। अपनी पुस्तक ‘पत्रकारिता के युग निर्माता : भीमराव आंबेडकर’ में लेखक सूर्यनारायण रणसुभे ने इसलिए कहा भी है - कि “जाने-अनजाने बाबा साहेब ने इसी दिन से दीन-दलित, शोषित और हजारों वर्षों से उपेक्षित मूक जनता के नायकत्व को स्वीकार किया था।”

By अनूप कुमार 
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Baba Saheb Ambedkar Jayanti(Special on 14th April) : “अगर कोई इंसान, हिंदुस्तान के कुदरत तत्वों और मानव समाज को एक दर्शक के नजरिए से फ़िल्म की तरह देखता है, तो ये मुल्क नाइंसाफ़ी की पनाहगाह के सिवा कुछ नहीं दिखेगा।”  बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने आज से 103 वर्ष पूर्व 31 जनवरी 1920 को अपने अख़बार ‘मूकनायक’ के पहले संस्करण के लिए जो लेख लिखा था, यह उसका पहला वाक्य है। अपनी पुस्तक ‘पत्रकारिता के युग निर्माता : भीमराव आंबेडकर’ में लेखक सूर्यनारायण रणसुभे ने इसलिए कहा भी है – कि “जाने-अनजाने बाबा साहेब ने इसी दिन से दीन-दलित, शोषित और हजारों वर्षों से उपेक्षित मूक जनता के नायकत्व को स्वीकार किया था।”

‘मूकनायक’ का प्रकाशन
बाबा साहेब ने ‘मूकनायक’ पत्र की शुरुआत की थी। इस समाचार पत्र के नाम में ही आंबेडकर का व्यक्तित्व छिपा हुआ है। वे ‘मूक’ समाज को आवाज देकर ही उनके ‘नायक’ बने। बाबा साहेब ने कई मीडिया प्रकाशनों की शुरुआत की। उनका संपादन किया। सलाहकार के तौर पर काम किया और मालिक के तौर पर उनकी रखवाली की। मूकनायक के प्रकाशन के समय बाबा साहेब की आयु मात्र 29 वर्ष थी। और वे तीन वर्ष पूर्व ही यानी 1917 में अमेरिका से उच्च शिक्षा ग्रहण कर लौटे थे। अक्सर लोग ये प्रश्न करते हैं कि कि एक उच्च शिक्षित युवक ने अपना समाचार-पत्र मराठी भाषा में क्यों प्रकाशित किया? वह अंग्रेजी भाषा में भी समाचार-पत्र का प्रकाशन कर सकते थे। ऐसा करके वह अभिजन समाज के बीच प्रसिद्धि पा सकते थे और अंग्रेज सरकार तक दलितों की स्थिति प्रभावी ढंग से रख सकते थे। लेकिन बाबा साहेब ने ‘मूकनायक’ का प्रकाशन वर्षों के शोषण और हीनभावना की ग्रंथि से ग्रसित दलित समाज के आत्म-गौरव को जगाने के लिए किया गया था। जो समाज शिक्षा से दूर था, जिसके लिए अपनी मातृभाषा मराठी में लिखना और पढ़ना भी कठिन था, उनके बीच जाकर ‘अंग्रेजी मूकनायक’ आखिर क्या जागृति लाता? इसलिए आंबेडकर ने मराठी भाषा में ही समाचार पत्रों का प्रकाशन किया।

अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी जाना जाता था
अगर हम उनकी पहुंच की और उनके द्वारा चलाए गए सामाजिक आंदोलनों की बात करें, तो बाबा साहेब अपने समय में संभवत: सब से ज़्यादा दौरा करने वाले नेता थे। सबसे खास बात यह है कि उन्हें ये काम अकेले अपने बूते ही करने पड़ते थे। न तो उन के पास सामाजिक समर्थन था, न ही आंबेडकर को उस तरह का आर्थिक सहयोग मिलता था, जैसा कांग्रेस पार्टी को हासिल था। इसके विपरीत, आंबेडकर का आंदोलन ग़रीब जनता का आंदोलन था। उनके समर्थक वो लोग थे, जो समाज के हाशिए पर पड़े थे, जो तमाम अधिकारों से महरूम थे, जो ज़मीन के नाम पर या किसी जमींदार के बंधुआ थे। आंबेडकर का समर्थक, हिंदुस्तान का वो समुदाय था, जो आर्थिक रूप से सब से कमज़ोर था। इसका नतीजा ये हुआ कि आंबेडकर को सामाजिक आंदोलनों के बोझ को सिर से पांव तक केवल अपने कंधों पर उठाना पड़ा। उन्हें इस के लिए बाहर से कुछ ख़ास समर्थन हासिल नहीं हुआ। और ये बात उस दौर के मीडिया को बख़ूबी नज़र आती थी। आंबेडकर के कामों को घरेलू ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी जाना जाता था।

सामाजिक आंदोलन को मीडिया के माध्यम से भी चलाया

हमें हिंदुस्तान के मीडिया में आंबेडकर की मौजूदगी और उनके संपादकीय कामों की जानकारी तो है, लेकिन ये बात ज्यादातर लोगों को नहीं मालूम कि उन्हें विदेशी मीडिया में भी व्यापक रूप से कवरेज मिलती थी। बहुत से मशहूर अंतरराष्ट्रीय अख़बार, आंबेडकर के छुआछूत के ख़िलाफ़ अभियानों और महात्मा गांधी से उनके संघर्षों में काफी दिलचस्पी रखते थे। लंदन का ‘द टाइम्स’, ऑस्ट्रेलिया का ‘डेली मर्करी’, और  ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’, ‘न्यूयॉर्क एम्सटर्डम न्यूज़’, ‘बाल्टीमोर अफ्रो-अमरीकन’, ‘द नॉरफॉक जर्नल’ जैसे अख़बार अपने यहां आंबेडकर के विचारों और अभियानों को प्रमुखता से प्रकाशित करते थे। भारतीय संविधान के निर्माण में अम्बेडकर की भूमिका हो या फिर संसद की परिचर्चाओं में आंबेडकर के भाषण, या फिर नेहरू सरकार से आंबेडकर के इस्तीफे की ख़बर। इन सब पर दुनिया बारीकी से नज़र रखती थी। बाबा साहेब ने अपने सामाजिक आंदोलन को मीडिया के माध्यम से भी चलाया।

‘मूकनायक का उदय,  

उन्होंने मराठी भाषा मे अपने पहले समाचार पत्र ‘मूकनायक’ की शुरुआत क्षेत्रीयता के सम्मान के साथ की थी। मूकनायक के अभियान के दिग्दर्शन के लिए तुकाराम की सीखों को बुनियाद बनाया गया। इसी तरह, आंबेडकर के एक अन्य अख़बार ‘बहिष्कृत भारत’ का मार्गदर्शन संत ज्ञानेश्वर के सबक़ किया करते थे। आंबेडकर ने इन पत्रिकाओं के माध्यम से भारत के अछूतों के अधिकारों की मांग उठाई। उन्होंने मूकनायक के पहले बारह संस्करणों का संपादन किया, जिसके बाद उन्होंने इसके संपादन की ज़िम्मेदारी पांडुरंग भाटकर को सौंप दी थी। बाद में डी डी घोलप इस पत्र के संपादक बने। हालांकि मूकनायक का प्रकाशन 1923 में बंद हो गया। इसकी खास वजह ये थी कि आंबेडकर, इस अखबार का मार्गदर्शन करने के लिए उपलब्ध नहीं थे। वो उच्च शिक्षा के लिए विदेश चले गए थे। इसके अलावा अख़बार को न तो विज्ञापन मिल पा रहे थे और न ही उसके ग्राहकों की संख्या इतनी ज्यादा थी कि उससे अखबार के प्रकाशन का ख़र्च निकाला जा सके। शुरुआती वर्षों में राजिश्री शाहू महाराज ने इस पत्रिका को चलाने में सहयोग दिया था। आंबेडकर की पत्रकारिता का अध्ययन करने वाले गंगाधर पानतावणे कहते हैं कि, ‘मूकनायक का उदय, भारत के अछूतों के स्वाधीनता आंदोलन के लिए वरदान साबित हुआ था। इसने अछूतों की दशा-दिशा बदलने वाला विचार जनता के बीच स्थापित किया।’

‘समता’
मूकनायक का प्रकाशन बंद होने के बाद, आंबेडकर एक बार फिर से पत्रकारिता के क्षेत्र में कूदे, जब उन्होंने 3 अप्रैल 1927 को ‘बहिष्कृत भारत’ के नाम से नई पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। ये वही दौर था, जब आंबेडकर का महाद आंदोलन ज़ोर पकड़ रहा था। बहिष्कृत भारत का प्रकाशन 15 नवंबर 1929 तक होता रहा। कुल मिला कर इसके 43 संस्करण प्रकाशित हुए। हालांकि, बहिष्कृत भारत का प्रकाशन भी आर्थिक दिक़्क़तों की वजह से बंद करना पड़ा। मूकनायक और बहिष्कृत भारत के हर संस्करण की कीमत महज डेढ़ आने हुआ करती थी, जबकि इस की सालाना कीमत डाक के खर्च को मिलाकर केवल 3 रुपए थी। इसी दौरान ‘समता’ नाम के एक और पत्र का प्रकाशन आरंभ हुआ, जिससे ‘बहिष्कृत भारत’ को नई ज़िंदगी मिली। उसे 24 नवंबर 1930 से ‘जनता’ के नए नाम से प्रकाशित किया जाने लगा। जनता, भारत में दलितों के सब से लंबे समय तक प्रकाशित होने वाले अखबारों में से है, जो 25 वर्ष तक छपता रहा था। ‘जनता’ का नाम बाद में बदल कर, ‘प्रबुद्ध भारत’ कर दिया गया था। ये सन् 1956 से 1961 का वही दौर था, जब आंबेडकर के आंदोलन को नई धार मिली थी।

पत्रकारिता का पहला कर्तव्य है, “बिना किसी प्रयोजन के समाचार देना

बाबा साहेब आंबेडकर ने 65 वर्ष 7 महीने और 22 दिन की अपनी जिंदगी में करीब 36 वर्ष तक पत्रकारिता की। ‘मूकनायक’ से लेकर ‘प्रबुद्ध भारत’ तक की उनकी यात्रा, उनकी जीवन-यात्रा, चिंतन-यात्रा और संघर्ष-यात्रा का भी प्रतीक है। मेरा मानना है कि ‘मूकनायक’… ‘प्रबुद्ध भारत’ में ही अपनी और पूरे भारतीय समाज की मुक्ति देखता है। आंबेडकर की पत्रकारिता का संघर्ष ‘मूकनायक’ के माध्यम से मूक लोगों की आवाज बनने से शुरू होकर, ‘प्रबुद्ध भारत’ के निर्माण के स्वप्न के साथ विराम लेता है। ‘प्रबुद्ध भारत’ यानी एक नए भारत का निर्माण। आंबेडकर के विचारों का फलक बहुत बड़ा है। ये सही है कि उन्होंने वंचित और अछूत वर्ग के लिए एक लंबी लड़ाई लड़ी, लेकिन उनका मानवतावादी दृष्टिकोण हर वर्ग को छूता है। आंबेडकर का मानना था कि पत्रकारिता का पहला कर्तव्य है, “बिना किसी प्रयोजन के समाचार देना, बिना डरे उन लोगों की निंदा करना, जो गलत रास्ते पर जा रहें हों, फिर चाहे वे कितने ही शक्तिशाली क्यों न हों और पूरे समुदाय के हितों की रक्षा करने वाली नीति को प्रतिपादित करना।”

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग में आचार्य हैं)

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