असम के पुरी में बीते कल यानि शुक्रवार को भगवान जगन्नाथ की भव्य यात्रा निकाली गई। इस यात्रा में भक्तों की भीड़ उमड़ी जो कि भावना के साथ एक उत्सव को दर्शाती है। भगवान जगन्नाथ की दो बड़ी बड़ी आखें हैं जिसे देखने के बाद ऐसा लगता है कि भगवान अपने भक्त को जी भरकर देख रहे हैं।
लखनऊ। असम के पुरी में बीते कल यानि शुक्रवार को भगवान जगन्नाथ की भव्य यात्रा निकाली गई। इस यात्रा में भक्तों की भीड़ उमड़ी जो कि भावना के साथ एक उत्सव को दर्शाती है। भगवान जगन्नाथ की दो बड़ी बड़ी आखें हैं जिसे देखने के बाद ऐसा लगता है कि भगवान अपने भक्त को जी भरकर देख रहे हैं। आइए जानते हैं भगवान जगन्नाथ जी के रथ यात्रा में रस्सी का क्यूं इतना महत्व है?
रथ के बराबर है रस्सी का महत्व
जगन्नाथ जी की रथ यात्रा शुक्रवार को शाम 4:30 से शुरू हुआ। पहले दिन भगवान बलभद्र का रथ 200 मीटर खीचा गया। सूर्य ढलने के बात रथ नहीं खिचा जाता है तो इसीलिए बाकी रथ यात्रा शनिवार को आरंभ हुआ। इस रथ यात्रा में भक्तों कि भीड़ इतनी उमड़ती है जिसे कंट्रोल कर पाना मुश्किल रहता है। हर भक्त ये इच्छा लेकर आता है कि एक बार भगवान के रथ कि रस्सी खीचने को मिल जाये। वहीं अगर हम बात करे यात्रा की रस्सी कि तो इसका रथ से कम महत्व नहीं है।
भगवान जगन्नाथ जी की रस्सी का नाम शंखचूड़ क्यूं?
रथ यात्रा कि ये रस्सियां अलग अलग नाम से जानी जाती है। इस रस्सी का नाम शंखचूड़ है। पुरी में किंवदंती के अनुसार एक बार शंखचूड़ नाम के राक्षस ने भगवान जगन्नाथ कि प्रतिमा अधूरी समझकर उसने हरण का प्रयास किया। ऐसा करके वो भगवान पर विश्वास करने वालों का विश्वाश डिगाना चाहता था। इसके बाद भगवान बलभद्र से अपने छोटे भाई का ये अपमान सहा नहीं गया और वो उस राक्षस का बध कर दिये। इसके बाद शंखचूड़ ने भगवान से प्रार्थना किया कि मैं आपकी सेवा करना चाहता हूं। तब भगवान बलभद्र ने उसकी नाड़ी, रीढ़ से एक रस्सी बनाई जिसका प्रयोग आज भी भगवान जगन्नाथ के यात्रा में किया जाता है। शंखचूड़ भले ही एक राक्षस था लेकिन मोक्ष पाने से वो पवित्र हो गया था। रथ यात्रा की रस्सी खीचना भक्तों के प्रेम का समर्पण है। ओड़ीशा के संस्कृति का प्रतीक है।
रिपोर्ट – आकांक्षा उपाध्याय