Budhi Diwali 2024: भारत विविधता में एकता के लिए दुनियाभर में जाना है, जहां अलग-अलग राज्यों में भाषाएं और विविध संस्कृतियां देखने को मिलती है। इन संस्कृतियों से जुड़े समुदायों की मान्यताओं के अनुसार, पर्व भी मनाए जाते हैं। एक ऐसा ही पर्व पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश में दिवाली के एक महीने बाद मनाया जाता है, जिसे 'बूढ़ी दिवाली (Budhi Diwali)' के नाम से जाना जाता है।
Budhi Diwali 2024: भारत विविधता में एकता के लिए दुनियाभर में जाना है, जहां अलग-अलग राज्यों में भाषाएं और विविध संस्कृतियां देखने को मिलती है। इन संस्कृतियों से जुड़े समुदायों की मान्यताओं के अनुसार, पर्व भी मनाए जाते हैं। एक ऐसा ही पर्व पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश में दिवाली के एक महीने बाद मनाया जाता है, जिसे ‘बूढ़ी दिवाली (Budhi Diwali)’ के नाम से जाना जाता है।
दरअसल, प्राकृतिक सुंदरता और समृद्ध संस्कृति के लिए प्रसिद्ध हिमाचल प्रदेश के कुल्लू, सिरमौर और शिमला जिले के कुछ इलाके में ‘बूढ़ी दिवाली’ का पर्व हर साल दीवाली के ठीक एक महीने बाद मनाया जाता है। इस बार यह पर्व आज यानी 30 नवंबर को मनाया जाएगा। इस दिन मशालें जलाई जाती हैं और पारंपरिक वाद्य यंत्रों की थाप पर झूमते हुए लोग उत्सव का आनंद लेते हैं। यह पर्व चार दिनों तक चलता है।
बूढ़ी दिवाली के उत्सव में लोक आस्था और परंपरा का अनूठा संगम देखने को मिलता है, जहां पहले दो दिन मशालें जलाई जाती हैं। बाकी दिन लोग विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों- पारंपरिक नृत्य, संगीत और खेल आदि में भाग लेते हैं। लोग अपने परिवार और दोस्तों के साथ मिलकर इस पर्व का आनंद लेते हैं। इस पर्व में लोग अपने जीवन में सकारात्मकता और आशा की भावना को मजबूत करने की कामना करते हैं।
बूढ़ी दिवाली की पौराणिक मान्यता
बूढ़ी दिवाली को लेकर दो पौराणिक मान्यताएं प्रचलित है। पहली मान्यता के अनुसार, त्रेता युग में अयोध्या से अधिक दूर होने के कारण इस क्षेत्र (हिमाचल) के लोगों को श्रीराम के अयोध्या आने की खबर देरी से मिली। यहां के लोगों को लगा कि श्रीराम आज के ही दिन अयोध्या लौटे हैं। इसी खुशी में अमावस्या को लोगों ने दिवाली की तरह मनाया। जिसे बाद में बूढ़ी दिवाली के नाम से जाना गया। तभी से यह परंपरा चली आ रही है।
बूढ़ी दिवाली को लेकर दूसरी मान्यता भगवान परशुराम से भी जुड़ी है। जिला कुल्लू का निरमंड ‘पहाड़ी काशी’ के नाम से प्रसिद्ध है, जोकि भगवान परशुराम ने बसाई थी। कहा जाता है कि एक बार जब भगवान परशुराम अपने शिष्यों के साथ भ्रमण कर रहे थे। उसी दौरान एक दैत्य ने सर्पवेश में भगवान और उनके शिष्यों पर आक्रमण कर दिया। तब भगवान परशुराम ने अपने परसे से उस दैत्य का वध किया था। इस खुशी में लोगों ने उत्सव मनाया था। जिसे आज भी यहां पर बूढ़ी दिवाली वाले दिन मनाया जाता है।