चुनावी व्यवस्था (Election system) की एक अहम खामी ये है कि समय के साथ इसमें मुफ्तखोरी का चलन बढ़ता जा रहा है। आम तौर पर मतदाता राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में यह नहीं देखता कि उसमें नागरिकों के लिए क्या ठोए वायदे किए गए हैं, बल्कि वह अब यह देखता है कि कौन सा दल उन्हें क्या-क्या मुफ्त वस्तुएं और सुविधाएं देने के तैयार है।
नई दिल्ली : चुनावी व्यवस्था (Election system) की एक अहम खामी ये है कि समय के साथ इसमें मुफ्तखोरी का चलन बढ़ता जा रहा है। आम तौर पर मतदाता राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में यह नहीं देखता कि उसमें नागरिकों के लिए क्या ठोए वायदे किए गए हैं, बल्कि वह अब यह देखता है कि कौन सा दल उन्हें क्या-क्या मुफ्त वस्तुएं और सुविधाएं देने के तैयार है।
चूंकि जब कोई एक दल ऐसे वादे करता है तो अन्य दल भी वैसा करने के लिए बाध्य हो जाते हैं। इसके बाद उनमें मुफ्त की सामग्री या सुविधा देने की होड़ लग जाती है। तमिलनाडु से शुरू हुई ये मुफ्तखोरी की व्यवस्था अब पूरे देश में फैल चुकी है। अब इसी मुफ्तखोरी की प्रथा पर सुप्रीम कोर्ट आज सुनवाई करने जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों के दौरान मुफ्त चीजें या सुविधाएं देने का वादा करने की प्रथा के खिलाफ एक जनहित याचिका पर सुनवाई करेगी। लोकसभा से ठीक पहले इसे एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है।
लंबे समय से लंबित मामले पर सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने कहा मामला महत्वपूर्ण है और वह इसे कल देखेंगे। भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने बुधवार को मामले में याचिकाकर्ता के वकील को ये आश्वासन दिया।
याचिका में कहा गया है कि मतदाताओं से अनुचित राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिए लोकलुभावन उपायों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए क्योंकि वे संविधान का उल्लंघन करते हैं और भारत के चुनाव आयोग को उचित निवारक उपाय करने चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने वकील और पीआईएल याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय की ओर से पेश वरिष्ठ वकील विजय हंसारिया की दलीलों पर ध्यान दिया कि याचिका पर लोकसभा चुनाव से पहले सुनवाई की जरूरत है। इस याचिका में क्या है? याचिका में कहा गया है कि चुनाव से पहले सरकार का लोगों को पैसे बांटना प्रताड़ित करने जैसा है। यह हर बार हर चुनाव में होता है और इसका भार टैक्स चुकाने वाली जनता पर पड़ता है। याचिका में मांग की गई है कि मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने वाली पार्टियों के खिलाफ चुनाव आयोग एक्शन ले और इनकी मान्यता रद्द की जाए। चुनाव आयोग ने क्या कहा? पिछले साल अगस्त में इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग ने कहा था कि फ्रीबीज पर पार्टियां क्या पॉलिसी अपनाती हैं, उसे रेगुलेट करना चुनाव आयोग के अधिकार में नहीं है। चुनाव आयोग ने कहा कि चुनावों से पहले फ्रीबीज का वादा करना या चुनाव के बाद उसे देना राजनीतिक पार्टियों का नीतिगत फैसला होता है। चुनाव आयोग ने कहा कि इस बारे में नियम बनाए बिना कोई कार्रवाई करना चुनाव आयोग की शक्तियों का दुरुपयोग करना होगा। कोर्ट ही तय करे कि मुफ्तखोरी क्या है और जनकल्याण क्या है। इसके बाद हम इसे लागू करेंगे। आपको बता दें कि पिछले साल अगस्त में ही सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने इस पर टिप्पणी की थी कि, ‘कुछ लोगों का कहना है कि राजनीतिक पार्टियों को वोटर्स से वादे करने से नहीं रोका जा सकता। अब ये तय करना होगा कि मुफ्तखोरी क्या है। क्या सबके लिए हेल्थकेयर, स्वच्छ पानी की सुविधा, मनरेगा जैसी योजनाएं, जो जीवन को बेहतर बनाती हैं, क्या उन्हें मुफ्तखोरी माना जा सकता है?’ कोर्ट ने इस मामले के सभी पक्षों से अपनी राय देने को कहा था।